चल अकेला .. चल अकेला .. चल अकेला .. भाग २

 भाग २

बचपन में गणपती उत्सव के दौरान मैं  मुंबई में  खो गया था।  पुलिस की  सहायता से मैं   मिला। शायद इस घटना की  वजह से मुझे  कुछ ज्यादा ही सरंक्षण में रखा गया।  स्कूल या कॉलेज के दौरान मैं अकेले कहीं नहीं गया।  जब भी ऐसा मौका आया  किसी बड़े जिम्मेदार व्यक्ति के साथ ही गया। 

बदलाव तब आया जब नागपूर विश्वविद्यालय के  प्रवास और पर्यटन स्नातकोत्तर अभ्यासक्रम में  मैंने प्रवेश लिया ।  अब काम ही ऐसा सीख लिया जिसमें  आपको जगह-जगह घूमने फिरने का मौका मिलता था। साइकिल पर अकेले घूमने  मेरी आदत यहाँ से शुरू हुई। आगे चलकर नौकरी  में काम के सिलसिले में कई बार ट्रेन या बस में अनगिनत सफर किया । बहुत बार बाइक पर चंद्रपूर, अमरावती, वर्धा आदि शहरों मे मैं काम के सिलसिले मे  गया।

वैसे मुझे दोस्तों के साथ सर-सपाटा करने से परहेज नहीं था।  मेरी उनके साथ कई अच्छी यादें जुड़ी हैं।  अक्सर हम अपनी बाइक पर रामटेक जाते थे। हमारा एक गुट था जो साथ में सिनेमा देखना, बाजार घूमना, पार्टी करना, पिकनिक पर जाना पसंद करता था।   

कभी-कभी  ऐसे मौके भी आए जब मैंने ‘ खुद के लिए समय ' को प्राथमिकता दी। मैं अकेले ही अपनी

दोपहिया लेकर निकल जाता।  सोनगांव तालाब के किनारे अकेले बैठना और पक्षियों को देखना मेरा पसंदीदा काम  था। घर पर उपन्यास पढ़ना भी पसंद था । मैंने  दो हिंदी फिल्में अकेले देखीं - ‘कच्चे धागे' ‘ और 'राम-लखन'  और मुझे अपने दोस्तों के रोष का सामना करना पड़ा।

कुछ वर्षों के बाद मैं एक प्रमुख बहुराष्ट्रीय यात्रा कंपनी में शामिल हुआ। इस कंपनी में  कुछ दिन मैं भिलाई में रहा  और बाद में चंद्रपुर मेरा कार्यक्षेत्र रहा। इन स्थानों की यात्रा ट्रेन या बस द्वारा होती थी। नागपुर और भिलाई के बीच ट्रेन की यात्रा के दौरान मैंने हमेशा दूसरी श्रेणी के स्लीपर से यात्रा करना पसंद किया और कभीकभार अनारक्षित डिब्बों मे भी यात्रा की  । बाद में, जब मैं चंद्रपुर गया तो राज्य परिवहन की बसों में यात्रा का आनंद भी लिया क्योंकि यहाँ मेरा संपर्क  ग्रामीण यात्रियों के साथ आता था । चार वर्षों के मेरे कार्यकाल के दौरान विशेष रूप से कुछ सह-चालक मेरे परिचित हो गए थे।  वे मुझे बस में आखिरी कोने की सीट पर बैठने कि वजह से पहचानते  थे

मैं यहां एक घटना साझा करना चाहूंगा। चंद्रपुर से नागपुर की  एक वापसी यात्रा के  दौरान, रात में हमारी बस बंद पड़ गई। चालक नीचे उतरा  और कारण की तलाश में व्यस्त हो गया । सह-चालक  ने यात्रियों को दूसरी बस में चढ़ने में मदद की। किसी कारणवश मैं दूसरी बस में नहीं चढ़ा और  उनके साथ रुक गया। चूंकि चालक अपनी टार्च  नहीं पकड़ पा रहा था, इसलिए मैंने उसे अपने सेल टॉर्च के साथ मदद की और उसके साथ रहा।  एक घंटे के भीतर समस्या हल हो गई। अब बस में सवार  हम तीन ही थे। हमने  जाम में - जोकि बस रुकने  एक निर्धारित स्थान था, साथ में चाय का आनंद लिया।  


चंद्रपुर में रहते समय मैंने  जो हिंदी फिल्में अकेले देखीं  वे थीं 'पिकू', 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स', 'दम लगा के हईशा' और 'पीके'

 एक बार मुझे चंद्रपुर में एक रविवार को  संध्याकालीन समारोह में शामिल होना था।  मैं रुक गया और मैंने ताडोबा के लिए एक सस्ती छोटी बस सफारी बुक करके सुबह के समय का उपयोग किया। वह बस चंद्रपुर के मूल मार्ग स्थित स्थानीय वन कार्यालय से सुबह रवाना होती थी और दोपहर 12 बजे तक वापस लौटती थी । फिर से मैं आखिरी कोने की सीट पर बैठा  था। मेरे कुछ सह-यात्री  बाल-बच्चों वाले थे  और उनमें से कई अपनी पहली जंगल सफारी के लिए आए थे। यात्रा के समय सब ऊंची आवाज में बात कर रहे थे।  चालक  को दो-तीन बार उन्हे अनुरोध करना पड़ा।

बाद में, मोहोरली गेट एक गाइड हमारे साथ जुड़ गया। जंगल में प्रवेश करने के साथ ही बस मे बैठे हुए सभी  यात्री हरकत मे या गए । बच्चे हिरनों के झुंड को देख कर खुश थे। बस जंगल में सफारी पर जाने का एक आदर्श साधन  नहीं है, लेकिन यह आपको कम कीमत में जंगल घूमने मिल रहा हो तो किस बात कि शिकायत ?

सफारी के दौरान एक बुजुर्ग व्यक्ति ने चालक  और गाइड से रुकने का अनुरोध किया ताकि वह पेशाब कर सके।  मैंने चालक के चेहरे पर शिकन देखि  वह शांत था। उन्होंने उनसे अनुरोध किया कि सफारी के दौरान एक अल्प-विराम होगा  जहां आप आराम कर सकते हैं। वह व्यक्ति झगड़ने लगा। मुझे उस व्यक्ति को समझाना पड़ा  कि यह एक जंगल और यहाँ पालन करने के लिए कुछ नियम हैं । मेरे लिए यह एक अच्छा उदाहरण था  कि हमारे लोग जंगलों के प्रति वाकई में कितने जागरूक  हैं !!!

बस में कुछ मेहमान निराश थे क्योंकि वे बाघ को देखने की उम्मीद कर रहे थे। मैं जब भी जंगल जाता हूँ तो मैं अपने मन को केवल जंगल देखने और उसका आनंद लेने के प्रति तैयार करता हूँ ।  शायद इसलिये  मैं  इस तरह की  सफारी में सबसे खुश रहता हूँ । कम-से-कम इस यात्रा ने मुझे नाराज सह-यात्रियों को कैसे समझाना ये अनुभव दिया।

मैं पहले भी  यहाँ सफारी पर आया था और उस समय अपने मेहमानों के साथ 'ढोल' याने  जंगली कुत्तों के समूह को  अवलोकन करने का सौभाग्य मिला । इस  सफारी में हमारे साथ हमारा मित्र था जो पूरे सफारी के समय वहाँ की  जानकारी बहुत ही खूबसूरती से  साझा कर रहा था। हमारे इस मित्र ने वहाँ के पेड़ों, झाड़ियों, फूलों के साथ -साथ शाकाहारी और मांसाहारी प्राणियों के बारे में कई बातें  बताई। वह पक्षियों के बारे में भी अच्छी जानकारी दे रहा था। उसने हमारे जंगल देखने का नज़रिया  बदल दिया।
 

  


ऐसे कई लोग हैं जो जंगल सफारी के लिए जाते हैं लेकिन शिकायत करते हुए लौटते हैं कि उन्हें कुछ नहीं मिला। वे अक्सर गाइड  को दोषी ठहराते हैं।  दरअसल गाइड   इन्ही जंगलों के बाहर के गांवों में रहने वाले स्थानीय लोग हैं । मैंने देखा है कि वन विभाग इन गाइडों को प्रशिक्षित करने की कोशिश करता है। वे समझाने की पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन जब बाघ को ही देखना है ‘ ऐसी उम्मीद के भरोसे  पर्यटक जिप्सियों पर सवार होते हैं, तो हमारे गाइड  असहाय हो जाते हैं।

 

आगे और भी अनुभव हैं…. थोड़ा रुकते हैं .. जल्द ही मिलेंगे !!!


अमित नासेरी 

9422145190


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